जातिगत जनगणना: बीजेपी सहयोगियों का उत्साह, विपक्ष का दावा—हमने मारा चौका: केंद्र की मोदी सरकार ने 30 अप्रैल 2025 को जातिगत जनगणना कराने का ऐलान किया, और इसके बाद से सियासी गलियारों में हलचल मची हुई है। बीजेपी और उसके सहयोगी दल इस फैसले को सामाजिक क्रांति का पहला कदम बता रहे हैं। निषाद पार्टी के नेता संजय निषाद और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओपी राजभर खुलकर इसकी तारीफ कर रहे हैं, दावा करते हुए कि विपक्ष का सबसे बड़ा मुद्दा छीन लिया गया है। दूसरी ओर, विपक्षी दल जैसे कांग्रेस, RJD, और सपा इसे अपनी जीत बता रहे हैं, कहते हुए कि उनकी दबाव की रणनीति ने बीजेपी को झुकने पर मजबूर किया। L
इस फैसले को बिहार विधानसभा चुनाव और यूपी चुनाव 2027 से जोड़कर देखा जा रहा है। आइए, दोनों पक्षों की बात और इस सियासी ड्रामे की पूरी कहानी जानते हैं।
बीजेपी सहयोगियों का उत्साह: “ऐतिहासिक फैसला, विपक्ष बौखलाया”
संजय निषाद, जो उत्तर प्रदेश में निषाद समुदाय के बड़े नेता हैं, ने इस फैसले को ऐतिहासिक करार दिया। उन्होंने कहा, “1931 की जनगणना के मुताबिक, निषाद उपजातियां करीब 18% हैं। इतना बड़ा वोट बैंक है, फिर भी हमें हक नहीं मिला। देश को आजाद कराने वाले भूखे मर रहे हैं, और कुछ लोग मलाई खा रहे हैं। मोदी जी का यह फैसला वंचितों को न्याय दिलाएगा।” निषाद ने विपक्ष पर निशाना साधते हुए कहा कि कांग्रेस ने 60 साल सत्ता में रहकर कभी जातिगत जनगणना की सुध नहीं ली। उन्होंने निषाद पार्टी की रथ यात्रा का जिक्र करते हुए कहा कि उनकी पार्टी ने पूरे 75 जिलों में इस मुद्दे को उठाया, जिसका असर अब दिख रहा है।
इसी तरह, ओपी राजभर ने भी इस फैसले की जमकर तारीफ की। उन्होंने कहा, “मोदी जी पर अति पिछड़े, दलित, गरीब, और शोषित लोगों का भरोसा है। यह फैसला उन वंचितों को बड़ा लाभ देगा, जो आज तक हाशिए पर रहे। कांग्रेस ने 60 साल में क्या किया? आज बीजेपी ने सामाजिक न्याय का झंडा बुलंद किया है।” राजभर ने दावा किया कि यह कदम ओबीसी, दलित, और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए गेम-चेंजर साबित होगा।
बीजेपी के सहयोगी दलों का यह उत्साह इसलिए भी है, क्योंकि वे इसे बिहार चुनाव से पहले एक मास्टरस्ट्रोक मान रहे हैं। निषाद और राजभर जैसे नेता अपने समुदायों में प्रभाव रखते हैं, और यह फैसला उनके वोट बैंक को और मजबूत कर सकता है। बीजेपी के आधिकारिक X हैंडल पर भी इस फैसले को सामाजिक न्याय और विकास की दिशा में बड़ा कदम बताया गया है।
विपक्ष का पलटवार: “हमारी जीत, बीजेपी फंसी”
विपक्षी दल इस फैसले को अपनी रणनीति की जीत बता रहे हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा, “हमने संसद में बार-बार जातिगत जनगणना की मांग उठाई। हमने कहा था कि 50% आरक्षण की सीमा हटाएंगे। मोदी जी पहले कहते थे कि सिर्फ चार जातियां हैं—गरीब, युवा, महिला, और किसान। अब अचानक 11 साल बाद जनगणना का ऐलान? यह हमारी जीत है।” RJD नेता तेजस्वी यादव ने इसे लालू यादव की विरासत से जोड़ा, कहते हुए, “जिन्होंने हमें जातिवाद फैलाने का आरोप लगाया, उन्हें करारा जवाब मिला। यह फैसला लालू जी की लड़ाई का नतीजा है।”
Centre, Opposition 'war of credits' over cabinet's caste census decision
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने इसे पिछड़े, दलित, और अल्पसंख्यक (PDA) समुदाय की एकजुटता की जीत बताया। उन्होंने X पर लिखा, “यह बीजेपी की मजबूरी है। अगर जनगणना ईमानदारी से हुई, तो हर जाति को उसकी आबादी के हिसाब से हक मिलेगा, जो अब तक प्रभावशाली जातियां हड़प रही थीं।” विपक्ष का कहना है कि बीजेपी ने यह फैसला 2024 लोकसभा चुनाव में यूपी और महाराष्ट्र में मिली हार के बाद दबाव में लिया, जहां OBC और दलित वोटरों का एक हिस्सा इंडिया गठबंधन की ओर खिसक गया था।
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विपक्षी नेता इस फैसले को बिहार विधानसभा चुनाव (अक्टूबर-नवंबर 2025) और यूपी चुनाव 2027 से जोड़ रहे हैं। बिहार में नीतीश कुमार की जद(यू) पहले ही जातिगत सर्वे करा चुकी है, और अब बीजेपी का यह कदम RJD और कांग्रेस के मुद्दे को कमजोर करने की कोशिश माना जा रहा है।
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सियासी समीकरण: मास्टरस्ट्रोक या जोखिम भरा दांव?
जातिगत जनगणना का फैसला बीजेपी के लिए दो धारी तलवार साबित हो सकता है। एक तरफ, यह OBC और दलित समुदायों को आकर्षित कर सकता है, जो 2014 और 2019 में बीजेपी की जीत के बड़े कारण रहे। लोकनीति-CSDS के आंकड़ों के मुताबिक, 2019 में 44% OBC ने बीजेपी को वोट दिया, जबकि क्षेत्रीय दलों को सिर्फ 27% वोट मिले। बीजेपी को उम्मीद है कि यह फैसला बिहार में नीतीश कुमार के साथ गठबंधन को मजबूत करेगा और यूपी में सपा के OBC वोट बैंक में सेंध लगाएगा।
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लेकिन दूसरी ओर, यह फैसला बीजेपी की हिंदुत्व की रणनीति को कमजोर कर सकता है। RSS और बीजेपी ने हमेशा हिंदू एकता पर जोर दिया, लेकिन जातिगत जनगणना से जातीय चेतना बढ़ सकती है, जिससे उच्च जातियों** में नाराजगी हो सकती है। 2015 में RSS प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा की बात से बिहार चुनाव में बीजेपी को नुकसान हुआ था। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह फैसला मंडल राजनीति को फिर से जिंदा कर सकता है, जिससे RJD, सपा, और जद(यू) जैसे दल फायदा उठा सकते हैं।
संजय निषाद ने 2011 की जनगणना का जिक्र करते हुए दावा किया कि निषाद समुदाय को जानबूझकर कम दिखाया गया, जो उनकी 70 लाख की आबादी को 7000 तक सीमित करने की साजिश थी। यह बयान OBC समुदायों में ऐतिहासिक शिकायतों को दर्शाता है, जो मानते हैं कि उनकी सही गिनती नहीं हुई। बीजेपी इस फैसले से ऐसी शिकायतों को दूर करने की कोशिश कर रही है, लेकिन अगर जनगणना में पारदर्शिता की कमी रही, तो यह उल्टा पड़ सकता है।
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सामाजिक और सियासी प्रभाव
जातिगत जनगणना से सामाजिक न्याय की दिशा में कदम उठ सकते हैं, जैसे आरक्षण की सीमा बढ़ाना या कल्याण योजनाओं को बेहतर करना। तेलंगाना और बिहार जैसे राज्यों ने पहले ही जातिगत सर्वे किए हैं, और अब राष्ट्रीय स्तर पर यह डेटा नीतियों को और सटीक बना सकता है। लेकिन इसके साथ ही जातीय तनाव और वोट बैंक की राजनीति बढ़ने का खतरा भी है।
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कांग्रेस ने इसे अपनी 2024 चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाया था, जिसमें 50% आरक्षण सीमा हटाने का वादा शामिल था। अब बीजेपी ने इस मुद्दे को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश की है। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने दावा किया कि कांग्रेस ने आजादी के बाद कभी जनगणना नहीं की, और यह मोदी सरकार की दूरदर्शिता है।
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सवाल जो बाकी हैं?
कब होगी जनगणना?
2021 की जनगणना कोविड के कारण टल गई थी, और अभी इसकी नई तारीख स्पष्ट नहीं है।
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क्या होगी पारदर्शिता?
विपक्ष ने मांग की है कि डेटा को डिलिमिटेशन से पहले सार्वजनिक किया जाए।
क्या होगा प्रभाव?
क्या यह OBC और दलित समुदायों को सशक्त करेगा, या जातीय विभाजन को और गहरा करेगा?
निष्कर्ष
मोदी सरकार का जातिगत जनगणना का फैसला सियासी तौर पर मास्टरस्ट्रोक हो सकता है, अगर यह OBC और दलित वोटरों को बीजेपी की ओर खींच ले। लेकिन अगर यह हिंदू एकता को कमजोर करता है या मंडल राजनीति को हवा देता है, तो बीजेपी को नुकसान भी हो सकता है। संजय निषाद और ओपी राजभर जैसे सहयोगी इस फैसले से उत्साहित हैं, लेकिन विपक्ष इसे अपनी जीत मान रहा है। बिहार और यूपी के चुनाव इस फैसले के असली प्रभाव को तय करेंगे।
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